Wednesday, November 7, 2007

सन्नाटा

चुप्पी है , सन्नाटा है एक रात बची है खाली,
ढूढ़ रही हैं बोझिल आँखें कहीं भोर की लाली.
सन्नाटों की सिसकी है, आँसू का खरापन है.
जितना तोडूं , उतना बंधती कैसा ये बन्धन है


मन के सूनेपन को कोई मिलता छोर नही है
कैसी है ये उलझन जिसका कोई ओर नही है
गीली मिट्टी पे रह जाते निशाँ खुले पैरों के,
मन मे हैं रह गए जख्म कुछ अपने कुछ गैरों के.


सूना रस्ता, सूनी आँखें, टूटा मन का दर्पण,
तिल तिल मरते सपनों की एक घुटी घुटी सी तड़पन.
मेरे पूछे प्रश्न मुझी तक वापस है आ जाते,
और दूर तक सन्नाटे कुछ और घने हो जाते.

1 comment:

Vikash said...

"चुप्पी है , सन्नाटा है एक रात बची है खाली,
ढूढ़ रही हैं बोझिल आँखें कहीं भोर की लाली."

संवेदना साफ़ साफ़ झलकती है. आपकी तीनॊंं कवितायें उत्कृष्ट श्रेणी की हैं. देखकर आश्चर्य हुआ कि अबतक किसी ने कोई टिप्पणी क्युँ ना की. शायद लोग भय खाते होंगे :)