Monday, November 15, 2010

ghutan

घुटन साँसों की भारी हो
नहीं आये नजर रास्ता
कुछ अनसुलझी लाचारी हो
हो अपना अक्श ही चुभता

तो मन की मत सुना करना
बेवजह ये शोर करता है
एक अपना दर्द क्या कम है
जो ये कमजोर करता है

Wednesday, November 21, 2007

अच्छा लगा......

साँसों मे महसूस की मैंने घुटन,
सपने मेरे जब भी टूटे बंदिशों मे.
मुझसे कई उम्मीदें तेरी हैं जुडी,
सेन्हिल से स्पर्श से तेरा जताना,
अच्छा लगा.........

मंजिलें थी दूर जब मन थक गया,
हारने थी जब लगी मैं हौसला,
बनकर तुम्हारा फ़िर से मेरी प्रेरणा,
मुझको फ़िर आगे बढाना,
अच्छा लगा.........

जब कभी बागी हुए हालात थे,
आँसू मे डूबे मेरे दिन रात थे,
कह न पाई जब लबों से दर्द मैं,
बिन कहे तेरा समझ जाना,
अच्छा लगा........

मेरी खुशियों मे सदा शामिल रही,
तेरे आँसू मेरे गम में हैं बहे,
बचाकर सारी दुनियाँ से मुझे,
आँचल मे अमानत सा छुपाना,
अच्छा लगा......

Tuesday, November 20, 2007

मूक गवाही......

शाम ढले फ़िर मेरे आँगन
हलकी सी पुरवाई
थोड़े पत्ते थोड़ी यादें
साथ लिए है आई

पीछे पीछे चलकर आई
यादों भरी पिटारी
दो बूँदें ढलकी बेबस सी
लिए मेरी लाचारी

धुंधली आंखों के आगे फ़िर
गुज़री एक कहानी
कुछ अपने, कुछ मन के हाथों
बीती एक मनमानी

हर आहट पे उठकर मेरा
दरवाजे तक जाना.
नाम तुम्हारा सुनकर मेरी
साँसों का थम जाना.

दबे हुए क़दमों से चलकर,
रात की एक परछाई.
दुआ सरीखी मेरी इन,
बिखरी यादों पे छाई.

शब्द हो गए धुंधले ,
जाने फ़ैली कैसे स्याही.
भीगे पन्ने, गीले मन की
दे गए मूक गवाही.............

Tuesday, November 13, 2007

थोड़ी सी......

ना ही ग़मों का हिसाब ले,
ना खुशियों से हो वास्ता.
बेशर्त जीने की मुझे,
थोड़ी सी मोहलत चाहिए.........

जहाँ खुल के जी भर रो सकूं,
पहरा ना मेरी हंसी पे हो.
साँसों का जो न हिसाब ले,
मुझे ऐसी एक छत चाहिए...........

जो सारे मुझको जवाब दे,
जिन्हें जिंदगी रही ढूँढती.
वक्त के हाथों लिखा,
मुझे ऐसा एक ख़त चाहिए..........

मुझे गिराने दो के संभल सकूं,
उठूँ, उठके फ़िर से मैं चल सकूं
ऐ जिंदगी तेरी मुझे,
इतनी इनायत चाहिए..........

चलते चलते.........

चलते चलते अब तो हैं थक गए इतने कदम,
एक अगला डग बढाना हो गया दुश्वार है.
एक साहिल दूर छूटा एक साहिल दूर है,
हम जहाँ आकर फंसे हैं वो जगह मझधार है............................

Wednesday, November 7, 2007

सन्नाटा

चुप्पी है , सन्नाटा है एक रात बची है खाली,
ढूढ़ रही हैं बोझिल आँखें कहीं भोर की लाली.
सन्नाटों की सिसकी है, आँसू का खरापन है.
जितना तोडूं , उतना बंधती कैसा ये बन्धन है


मन के सूनेपन को कोई मिलता छोर नही है
कैसी है ये उलझन जिसका कोई ओर नही है
गीली मिट्टी पे रह जाते निशाँ खुले पैरों के,
मन मे हैं रह गए जख्म कुछ अपने कुछ गैरों के.


सूना रस्ता, सूनी आँखें, टूटा मन का दर्पण,
तिल तिल मरते सपनों की एक घुटी घुटी सी तड़पन.
मेरे पूछे प्रश्न मुझी तक वापस है आ जाते,
और दूर तक सन्नाटे कुछ और घने हो जाते.

तुम............

कौन हो तुम जो कहीं नही हो,
फ़िर भी हर पल यहीं कहीं हो.
आंखों के आंसू मे हो तुम,
इन होठों की खिली हँसी हो.

क्यों लगता तुम सर्द हवा सी
आँचल मे लिपटे हो मेरे?
हर पल देखूं राह तुम्हारी
रात, दोपहर, सांझ,सवेरे.

क्यों लगता बनकर आओगे
तुम वह सुंदर धवल आइना
जिसमे जी भर निरख सकूँगी,
पाक, साफ वजूद मैं अपना

आना बनकर नया सवेरा,
मन के सूने वीराने में
कैद तुम्हे कर लूंगी फ़िर मैं,
इन पलकों के तहखाने मे