शाम ढले जब पन्ख पसारे लौटेे नीर को पाखी,
ढलता सूरज थककर स्न्ध्या धीरे से मुस्काती.
उस पल जाने क्यो नयनो मे भर भर आता पानी,
मन जाने क्यो कह उठता तब मै तन्हा एकाकी.
ग़ोधूली मे लौटे गायें जब भी अपनेे घर को,
ज़ाने क्यो एक हूक़ कलेजे मे उठती पल भर को.
ज़ान न पाऊं क्या मैं चाहूं क्या है पाना मुझको,
राहें है पर समझ न पाऊं कहां है जाना मुझको.
मन की बातें मन ही जाने,जान नही मै पाई,
ज़ाने कैसी आंख मीचौली खेले मन तन्हाई.
Wednesday, September 5, 2007
Subscribe to:
Comments (Atom)